Tuesday 15 August 2023

सतयुग की वापसी भाग 2 "लेने के देने क्यों पड़ रहें हैं?"

 लेने के देने क्यों पड़ रहें हैं? 

सतयुग की वापसी भाग - 2 ऑडियो बुक MP4


For Regular updates in Your Youtube App Subscribe this Channel Now


Labels: , , ,

Saturday 12 August 2023

सतयुग की वापसी - 1 परिचय

 सतयुग की वापसी भाग-1 ( सार संक्षेप परिचय)


For Regular updates in Your Youtube App Subscribe this Channel Now

Labels: , , ,

Saturday 14 November 2020

What am I ? मैं क्या हूं?

 

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? 

 🌄 भूमिका
🧘  इस संसार मे जानने योग्य अनेक बातें हैं। विद्या के अनेकों क्षेत्र हैं, खोज के लिए, जानकारी प्राप्त करने के लिए अमित मार्ग हैं। अनेकों विज्ञान ऐसे हैं जिनकी बहुत कुछ जानकारी प्राप्त करना मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। क्यों? कैसे? कहाँ? कब? के प्रश्न हर क्षेत्र में वह फेंकता है। इस जिज्ञासा भाव के कारण ही मनुष्य अब तक इतना ज्ञान सम्पन्न और साधन सम्पन्न बना है। सचमुच ज्ञान ही जीवन का प्रकाश स्तम्भ है।

🧘 जानकारी की अनेकों वस्तुओं में से ''अपने आपकी जानकारी*'' सर्वोपरि है। हम बाहरी अनेकों बातों को जानते हैं या जानने का प्रयत्न करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं क्या हैं? अपने आपका ज्ञान प्राप्त किए बिना जीवन का क्रम बड़ा डाँवाडोल, अनिश्चित और कंटकाकीर्ण हो जाता है। अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी न होने के कारण मनुष्य न सोचने लायक बातें सोचता है और न करने लायक कार्य करता है। सच्ची सुख-शान्ति का राजमार्ग एक ही है और वह है-''आत्म ज्ञान''।

 इस पुस्तक में आत्म ज्ञान की शिक्षा है। ''मैं क्या हूँ?'' इस प्रश्न का उत्तर शब्दों द्वारा नहीं वरन् साधना द्वारा हृदयंगम कराने का प्रयत्न इस पुस्तक में किया गया है। यह पुस्तक अध्यात्म मार्ग के पथिकों का उपयोगी पथ प्रदर्शन करेगी, ऐसी हमें आशा है।


पहला अध्याय

कः कालः कानि मित्राणि, को देशः कौ व्ययाऽऽगमौ।
कश्चाहं का च मे शक्तिरितिचिन्त्यं मुहुर्मुहः॥
-चाणक्य नीति 4.18


🔵 ''कौन सा समय है, मेरे मित्र कौन हैं, शत्रु कौन हैं, कौन सा देश (स्थान) है, मेरी आय-व्यय क्या है, मैं कौन हूँ, मेरी शक्ति कितनी है? इत्यादि बातों का बराबर विचार करते रहो।'' सभी विचारकों ने ज्ञान का एक ही स्वरूप बताया है, वह है ''आत्म-बोध''। अपने सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। जीव असल में ईश्वर ही है। विचारों से बँधकर वह बुरे रूप में दिखाई देता है, परन्तु उसके भीतर अमूल्य निधि भरी हुई है। शक्ति का वह केन्द्र है और इतना है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। सारी कठिनाइयाँ, सारे दुःख इसी बात के हैं कि हम अपने को नहीं जानते। जब आत्म स्वरूप को समझ जाते हैं, तब किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं रहता।
🔴 आत्म स्वरूप का अनुभव करने पर वह कहता है-

''नाहं जातो जन्म मृत्यु कुतो मे, नाहं प्राणः क्षुस्मिपासे कुतो मे।
नाहं चित्तं शोक मोहौ कुतो मे, नाहं कर्ता बंध मोक्षौ कुतो मे॥''


🔵 मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, फिर मेरा जन्म-मृत्यु कैसे? मैं प्राण नहीं हूँ, फिर भूख-प्यास मुझे कैसी? मैं चित्त नहीं हूँ, फिर मुझे शोक-मोह कैसे? मैं कर्ता नहीं हूँ, फिर मेरा बन्ध-मोक्ष कैसे?

 जब वह समझ जाता है कि मैं क्या हूँ तब उसे वास्तविक ज्ञान हो जाता है और सब पदार्थों का रूप ठीक से देखकर उसका उचित उपयोग कर सकता है। चाहे किसी दृष्टि से देखा जाय आत्मज्ञान ही सर्वसुलभ और सर्वोच्च ठहरता है।

🔴 किसी व्यक्ति से पूछा जाय कि आप कौन हैं? तो वह अपने वर्ण, कुल, व्यवसाय, पद या सम्प्रदाय का परिचय देगा। ब्राह्मण हूँ, अग्रवाल हूँ, बजाज हूँ, तहसीलदार हूँ, वैष्णव हूँ आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर अपने निवास स्थान, वंश व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। प्रश्न के उत्तर के लिए ही यह सब वर्णन हों सो नहीं, उत्तर देने वाला यथार्थ में अपने को वैसा ही मानता है। शरीर-भाव में मनुष्य इतना तल्लीन हो गया है कि अपने आपको वह शरीर ही समझने लगा है।

🔵 वंश, वर्ण, व्यवसाय या पद शरीर का होता है। शरीर मनुष्य का एक परिधान, औजार है। परन्तु भ्रम और अज्ञान के कारण मनुष्य अपने आपको शरीर ही मान बैठता है और शरीर के स्वार्थ तथा अपने स्वार्थ को एक कर लेता है। इसी गड़बड़ी में जीवन अनेक अशान्तियों, चिन्ताओं और व्यथाओं का घर बन जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Friday 23 October 2020

अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली नवरात्रि-साधना की महत्ता

यदि आप जानना चाहते हैं कि हिन्दू धर्म में मनाया जाने वाला नवरात्रि साधना जो मां दुर्गा की शक्ति रूप की आराधना के रूप में पूरे देश में सम्पन्न होती है उसका क्या विशेष लाभ है ? तो आप युग ऋषि वेद मूर्ति पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वचनों में जाने नवरात्र के विशेष महत्व ।

🌄अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली यह नवरात्रि-साधना

🧘 नवरात्रि अनुष्ठान कैसे करें विधि विधान -
 "अनुष्ठान के अंतर्गत साधक संकल्पपूर्वक नियत संयम-प्रतिबन्धों एवं तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना पद्धति को अपनाता है और नवरात्रि के इन महत्वपूर्ण क्षणों में अपनी चेतना को परिष्कृत-परिशोधित करते हुए उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ता है। चौबीस हजार के लघु गायत्री अनुष्ठान के अंतर्गत उपासना के क्रम में प्रतिदिन 27 माला गायत्री महामंत्र के जप का विधान है। जो अपनी गति के अनुसार तीन से चार घण्टे में पूरा हो जाता है। यदि कोई नवागन्तुक पूरा गायत्री मंत्र बोलने में असक्षम हो तो वह पंचाक्षरी गायत्री-’ॐ भूर्भुवः स्वः’ के साथ भी इस जप संख्या को पूरी कर सकता है। इसमें प्रतिदिन एक घण्टा समय लगता है। पूर्ण श्रद्धा के साथ सम्पन्न यह साधना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से चमत्कारिक रूप से फलित होती है, क्योंकि गायत्री परम सतोगुणी, शरीर-प्राण व अन्तःकरण में दिव्य तत्वों का, आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्मकल्याण का राजमार्ग है।"
🧘 
यहां मन में असमंजस की स्थिति आ सकती है कि नवरात्रि को दुर्गा उपासना से जोड़कर रखा गया है फिर गायत्री अनुष्ठान का उससे क्या सम्बन्ध है। वास्तव में दुर्गा महाकाली भी गायत्री महाशक्ति का ही एक रूप है। दुर्गा कहते हैं- दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति हो। नौ रूपों में माँ दुर्गा की उपासना इसलिए की जाती है कि वह हमारी इन्द्रिय चेतना में जड़ जमा चुके दुर्गुणों को नष्ट कर दें। मनुष्य की पापमयी वृत्तियां ही महिषासुर हैं। नवरात्रियों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया तथा संयम द्वारा दमन किया जाता है। संयमशील आत्मा को ही दुर्गा, महाकाली, गायत्री की शक्ति से सम्पन्न कहा गया है। प्राण चेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति महिषासुर मर्दिनी बन जाती है।

🧘 नवरात्रि अनुष्ठान में उपासना के अंतर्गत मन को उच्चतर दिशा की ओर प्रवाहमान बनाये रखने के लिए जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। साकार उपासना सूर्य मध्यस्थ गायत्री या गुरु सत्ता का तथा निराकार उपासक सूर्य एवं इससे निस्सृत किरणों के रूप में गायत्री शक्ति का ध्यान करते हैं। वैसे भावभूमि बनने पर मातृभाव में ध्यान तुरन्त लग जाता है, जप स्वतः ओठों पर चलता रहता है। उँगलियों में माला के मनके बढ़ते रहते हैं और ध्यान मातृसत्ता के अनन्त स्नेह व ऊर्जा पाते रहने के तथा अनन्त ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिंतन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिंताओं से जितना खाली रखा जा सके, अस्त- व्यस्तता से जितना मुक्त रखा जा सके, रखना चाहिए। आत्मचिंतन में अब तक के जीवन की समीक्षा करते हुए, भूलों को समझने व प्रायश्चित द्वारा उनके परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान जीवन क्रम में वाँछित उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता के समावेश का दृढ़तापूर्वक संकल्प करना चाहिए।"
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य🧘

👉 नवरात्रि अनुशासन के बारे में युग ऋषि कहते हैं- 

 उपवास का तत्वज्ञान आहार शुद्धि से सम्बन्धित है, “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली बात आध्यात्मिक प्रगति के लिए विशेष रुप से आवश्यक समझी गई हैं। इसके लिए न केवल फल, शाक, दूध जैसे सुपाच्य पदार्थो को प्रमुखता देनी होगी, वरन् मात्र चटोरेपन की पूर्ति करने वाली मसाले तथा खटाई, मिठाई, चिकनाइ्र की भरमार से भी परहेज करना होगा। यही कारण है कि उपवासों से भी परहेज करना होगा। यही कारण हैं कि उपवासों की एक धारा, ‘अस्वाद व्रत’ भी हैं।

🧘 साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खा जाने वाली आदत से बचें, यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किय जाए और उसकी अधिक मात्रा से अधिक बल मिलने वालों की प्रचलित मान्यता से पीछो छुड़ाया जाए। वस्तुतः आम आदमी जितना खाता है उससे आधे में उसका शारीरिक एवं मानसिक परिपोषण भली प्रकार हो सकता हैं। एक तत्व ज्ञानी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “आधा भोजन हम खाते हैं और शेष आधा हमें खाता रहता हैं।” लुकमान कहते थे कि-”हम रोटी नहीं खाते-रोटी हमें खाती है।” इन उक्तियों में संकेत इतना ही है कि शारीरिक और मानसिक स्वस्थ्य का महत्व समझने वालों को सर्वभक्षी नहीं स्वल्पाहारी होना चाहिए। नवरात्रि उपवास में इस आदर्श को जीवन भर अपनाने का संकेत हैं।

🧘 आध्यात्मिक दृष्टि से पौष्टिक एवं सात्विक आहार वह है जो ईमानदारी और मेहनत के साथ कमाया गया है। उपवास का अपना तत्वज्ञान है। उसमें सात्विक खाँद्यों का कम मात्रा में लेना ही नहीं, न्यायोपार्जित होने की बात भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं उसी सिलसिले में एक और बात भी आती है कि इस प्रकार आत्म संयम बरतने से जा बचत होती है उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में होना चाहिए न कि संचय करके अमीर बनने में। यहीं कारण हैं कि जहाँ नवरात्रि अनुष्ठानों मं उपवास करकें जो कुछ बचाया जाता हैं उसे पूर्णाहुति के अन्तिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च कर दिया जाता है।

🧘 ब्रह्मभोज अर्थात् सत्कर्मो का परिपोषण। प्राचीन काल में एक वर्ग ही इस प्रयोजन में रहता था, अस्तु उसका निर्वाह एवं अपनाई हुई प्रवृत्तियों का व्यवस्थाक्रम मिलाकर जो आवश्यकता बनती हैं उसकी पूर्ति को ब्रह्मभोज कहा जाता था। इस प्रयोजन के लिए दी गई राशि को दान या दक्षिणा भी कहा जाता था। नवरात्रि अनुष्ठान की पूर्णता यज्ञायोजन तथा ब्रह्मभोज के साथ सम्पन्न होती है। इसका कारण तलाश करने पर उपवास का रहस्य विज्ञान और विस्तार समझ में आता हैं।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Labels: , ,

Saturday 4 April 2015

SHRI VEDMATA DEVMATA VISHWAMATA GAYATRI SAHKARI PARIWAR

ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात् ! 


सभी जानते है कि आधुनिक युग विज्ञान के प्रगति का युग है विज्ञान ने इस समय जितनी उन्नती की है उतनी शायद पहले कभी नही हुई नाना प्रकार के यंत्रो - मोटर ,कार ,वायुयान ,रेल ,बिजली ,टेलिविजन, मोबाईल, कम्पयुटर, रोकेट , विध्वंशकारी भयानक मिशायल, गोली, बम , बारुद ,एटमबम आदि.. आदि। के नित्य दिनदुनी रातचैगुनी निर्माण हो रहे है । आज मनुष्य इतनी बिपुल साधनो से युक्त है कि वे सर्वाधिक सुखी एवं शांतिपूर्ण होता। परंतु यदि देखा जाए तो वह पहले से कहीं और अशांत ,दुखी , भयग्रस्त अकेला एवं असहाय होता चला जा रहा है फलतः अकथनीय क्लेश से व्यथित हो दुख पा रहे है।
              इसलिए यह जनना , खोजना ,विचारना आवश्यक है कि सुख शांति एवं आन्नद का मूल आधार एवं स्त्रोत क्या है ?कहां है ? और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? और इन सभी जिज्ञासायों का समाधान हमें प्राप्त होती है स्वयं ‘आत्मा’ को जानने ,अनुभव करने और निर्माण से ।जिस पर प्राचीन तपस्वी ऋषि मुनियों लंबे समय तक शोध अनुसंधान के पश्चात विस्तृत एवं श्रेष्ठ आत्मविज्ञान का उपदेश दिया जिसका आधार है- साधना । इस श्रेष्ठ आत्मविज्ञान के ज्ञाता एवं उपासक होने के करण सतयुग ,द्वापर ,त्रैता आदि युगों के व्यक्ति अपेक्षाकृत कम भौतिक साधनो मे भी अधिक सुखी एवं शांतिपूर्ण थे। 
   अतः आज यह समय की मांग है कि पुनः अध्यात्म को जन जन तक पहुचाया जाय उसके महता से अवगत कराया जाय वास्तविक सुख शांति एवं समद्धि के लिए भौतिक ज्ञान विज्ञान के साथ अध्यात्म विज्ञान का अध्ययन अनुपालन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।    

उद्देश्य -

युग निर्माण योजना ‘‘ मनुष्य मे देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण  को सकार करने हेतू सक्रिय कर्मठ प्रज्ञा परिजनों का संगठित समूह ।

मनुष्य में सदविचार सदाचरण एवं देवत्व के अभ्युदय के लिए धर्मतंत्र से लोकषिक्षण , जन जागरण ,युग साहित्यों (विचारों) का विस्तार।

मनुष्यमात्र के भौतिक उन्नति ,सपन्नता ,सुरक्षा,सुख एवं शांति हेतू - सप्त आंदोलनों (साधना,शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन , पर्यावरण, कुरिति उन्मुलन ,एवं नारी जागरण आंदोलन) का संगठित एवं व्यवस्थित संचालन ।



गरीबी , उंच-नीच , भेद भाव ,अशिक्षा ,दहेज ,भ्रष्टाचार , असुरक्षा , आदि से पुर्णतः  मुक्त हो दिव्य आन्न्दमय स्वर्गीय जीवन की संरचना ।

Labels: