Friday 23 October 2020

अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली नवरात्रि-साधना की महत्ता

यदि आप जानना चाहते हैं कि हिन्दू धर्म में मनाया जाने वाला नवरात्रि साधना जो मां दुर्गा की शक्ति रूप की आराधना के रूप में पूरे देश में सम्पन्न होती है उसका क्या विशेष लाभ है ? तो आप युग ऋषि वेद मूर्ति पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वचनों में जाने नवरात्र के विशेष महत्व ।

🌄अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली यह नवरात्रि-साधना

🧘 नवरात्रि अनुष्ठान कैसे करें विधि विधान -
 "अनुष्ठान के अंतर्गत साधक संकल्पपूर्वक नियत संयम-प्रतिबन्धों एवं तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना पद्धति को अपनाता है और नवरात्रि के इन महत्वपूर्ण क्षणों में अपनी चेतना को परिष्कृत-परिशोधित करते हुए उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ता है। चौबीस हजार के लघु गायत्री अनुष्ठान के अंतर्गत उपासना के क्रम में प्रतिदिन 27 माला गायत्री महामंत्र के जप का विधान है। जो अपनी गति के अनुसार तीन से चार घण्टे में पूरा हो जाता है। यदि कोई नवागन्तुक पूरा गायत्री मंत्र बोलने में असक्षम हो तो वह पंचाक्षरी गायत्री-’ॐ भूर्भुवः स्वः’ के साथ भी इस जप संख्या को पूरी कर सकता है। इसमें प्रतिदिन एक घण्टा समय लगता है। पूर्ण श्रद्धा के साथ सम्पन्न यह साधना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से चमत्कारिक रूप से फलित होती है, क्योंकि गायत्री परम सतोगुणी, शरीर-प्राण व अन्तःकरण में दिव्य तत्वों का, आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्मकल्याण का राजमार्ग है।"
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यहां मन में असमंजस की स्थिति आ सकती है कि नवरात्रि को दुर्गा उपासना से जोड़कर रखा गया है फिर गायत्री अनुष्ठान का उससे क्या सम्बन्ध है। वास्तव में दुर्गा महाकाली भी गायत्री महाशक्ति का ही एक रूप है। दुर्गा कहते हैं- दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति हो। नौ रूपों में माँ दुर्गा की उपासना इसलिए की जाती है कि वह हमारी इन्द्रिय चेतना में जड़ जमा चुके दुर्गुणों को नष्ट कर दें। मनुष्य की पापमयी वृत्तियां ही महिषासुर हैं। नवरात्रियों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया तथा संयम द्वारा दमन किया जाता है। संयमशील आत्मा को ही दुर्गा, महाकाली, गायत्री की शक्ति से सम्पन्न कहा गया है। प्राण चेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति महिषासुर मर्दिनी बन जाती है।

🧘 नवरात्रि अनुष्ठान में उपासना के अंतर्गत मन को उच्चतर दिशा की ओर प्रवाहमान बनाये रखने के लिए जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। साकार उपासना सूर्य मध्यस्थ गायत्री या गुरु सत्ता का तथा निराकार उपासक सूर्य एवं इससे निस्सृत किरणों के रूप में गायत्री शक्ति का ध्यान करते हैं। वैसे भावभूमि बनने पर मातृभाव में ध्यान तुरन्त लग जाता है, जप स्वतः ओठों पर चलता रहता है। उँगलियों में माला के मनके बढ़ते रहते हैं और ध्यान मातृसत्ता के अनन्त स्नेह व ऊर्जा पाते रहने के तथा अनन्त ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिंतन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिंताओं से जितना खाली रखा जा सके, अस्त- व्यस्तता से जितना मुक्त रखा जा सके, रखना चाहिए। आत्मचिंतन में अब तक के जीवन की समीक्षा करते हुए, भूलों को समझने व प्रायश्चित द्वारा उनके परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान जीवन क्रम में वाँछित उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता के समावेश का दृढ़तापूर्वक संकल्प करना चाहिए।"
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य🧘

👉 नवरात्रि अनुशासन के बारे में युग ऋषि कहते हैं- 

 उपवास का तत्वज्ञान आहार शुद्धि से सम्बन्धित है, “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली बात आध्यात्मिक प्रगति के लिए विशेष रुप से आवश्यक समझी गई हैं। इसके लिए न केवल फल, शाक, दूध जैसे सुपाच्य पदार्थो को प्रमुखता देनी होगी, वरन् मात्र चटोरेपन की पूर्ति करने वाली मसाले तथा खटाई, मिठाई, चिकनाइ्र की भरमार से भी परहेज करना होगा। यही कारण है कि उपवासों से भी परहेज करना होगा। यही कारण हैं कि उपवासों की एक धारा, ‘अस्वाद व्रत’ भी हैं।

🧘 साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खा जाने वाली आदत से बचें, यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किय जाए और उसकी अधिक मात्रा से अधिक बल मिलने वालों की प्रचलित मान्यता से पीछो छुड़ाया जाए। वस्तुतः आम आदमी जितना खाता है उससे आधे में उसका शारीरिक एवं मानसिक परिपोषण भली प्रकार हो सकता हैं। एक तत्व ज्ञानी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “आधा भोजन हम खाते हैं और शेष आधा हमें खाता रहता हैं।” लुकमान कहते थे कि-”हम रोटी नहीं खाते-रोटी हमें खाती है।” इन उक्तियों में संकेत इतना ही है कि शारीरिक और मानसिक स्वस्थ्य का महत्व समझने वालों को सर्वभक्षी नहीं स्वल्पाहारी होना चाहिए। नवरात्रि उपवास में इस आदर्श को जीवन भर अपनाने का संकेत हैं।

🧘 आध्यात्मिक दृष्टि से पौष्टिक एवं सात्विक आहार वह है जो ईमानदारी और मेहनत के साथ कमाया गया है। उपवास का अपना तत्वज्ञान है। उसमें सात्विक खाँद्यों का कम मात्रा में लेना ही नहीं, न्यायोपार्जित होने की बात भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं उसी सिलसिले में एक और बात भी आती है कि इस प्रकार आत्म संयम बरतने से जा बचत होती है उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में होना चाहिए न कि संचय करके अमीर बनने में। यहीं कारण हैं कि जहाँ नवरात्रि अनुष्ठानों मं उपवास करकें जो कुछ बचाया जाता हैं उसे पूर्णाहुति के अन्तिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च कर दिया जाता है।

🧘 ब्रह्मभोज अर्थात् सत्कर्मो का परिपोषण। प्राचीन काल में एक वर्ग ही इस प्रयोजन में रहता था, अस्तु उसका निर्वाह एवं अपनाई हुई प्रवृत्तियों का व्यवस्थाक्रम मिलाकर जो आवश्यकता बनती हैं उसकी पूर्ति को ब्रह्मभोज कहा जाता था। इस प्रयोजन के लिए दी गई राशि को दान या दक्षिणा भी कहा जाता था। नवरात्रि अनुष्ठान की पूर्णता यज्ञायोजन तथा ब्रह्मभोज के साथ सम्पन्न होती है। इसका कारण तलाश करने पर उपवास का रहस्य विज्ञान और विस्तार समझ में आता हैं।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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